हिंदी साहित्य– पाठको का अभाव या बढ़ता लगाव
पिछले रविवार, कनाट प्लेस दिल्ली में स्थित एक प्रतिष्ठित बुक स्टोर में जाना हुआ । बहुत देर तक शीशे के बाहर सजी किताबों को निहारने के बाद अंदर कदम रखा तो फिर बिल्कुल बाहर की तरह मैंने अन्दर भी किताबों को एक साथ तक टकटकी लगा देखना शुरू कर दिया । वहां काम करने वाले एक भाईसाहब को शायद लगा कि या तो मैडम बहुत जरूरी किताब ढूंढ रही हैं या फिर बस अपना टाइम पास करने यहां आई है । तो उन्होंने आखिरकार पूछ ही लिया कि मैडम क्या चाहिए आपको? इस प्रश्न का इंतजार मैं लगभग उस समय से कर रही थी जब से में बाहर शीशे के अंदर रखी किताबो को निहार रही थी ।
हिंदी का सेक्शन कहां है ? मेरा ये पूछना और भाईसाहब का हाथ दिखा कर कहना- जाइए उपर है, ये कह कर वो तुरंत ही दूसरा कुछ बहुत ही अनावश्यक सा काम करने लगे । मै सीढ़ी चढ़कर ऊपर गई तो आखिरी सीढ़ी से ऊपर चढ़ने से पहले ही आवाज आयी…. नमस्कार मैम, बताइए ।
भैया हिंदी की किताबें ?-मैंने कहा ।
हां हां मैम, यहां इधर हिंदी की ही किताबे है। हिंदी की किताब वाली उन दो तीन शेल्फ की तरफ मैंने देखा और उन्होंने मुझे और ऐसे कहा जैसे – चलो याद तो आई हमारी ।
लगभग 100 गज से बड़ा प्रतिष्ठित शोरूम जैसा बुक स्टोर, जिसमे नीचे पूरा फ्लोर, बाहर का शीशा, सीढियां हर जगह अंग्रेजी की किताबों, प्रतियोगी किताबो व कुछ अन्य भाषाओं ने ले रखी थी । ऊपर के फ्लोर में मात्र 20 गज या यूं समझिए उतनी जगह जिसमे महानगरों के फ्लैट की छोटी सी बालकनी में लोग फूल लगा लेते हैं, ऑर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर कुछ गमलों में सब्जी उगा लेते हैं या फिर ढेर सारे कपड़े सूखा लेते हैं बस उतनी जगह । मन बहुत प्रफुल्लित नहीं हुआ ये देखकर।
हिम्मत कर जब आगे बड़ी, धर्मवीर भारती, फणीश्वर नाथ रेणु, शिवानी, निराला और मंटो को देख कर बहुत अच्छा लगा। फिर मैंने पूछा कि कुछ नया है आपके पास या फिर नई वाली हिंदी । बिलिंग काउंटर से उठकर वह भाईसाहब मेरे पास मुस्कुराते हुए आए और उन्होंने एक लम्बी लिस्ट से कई नाम गिना दिए- मुसाफिर कैफे, औघड़, नैना, अंतिमा, नमक स्वादानुसार, बनारस टॉकीज, जनता स्टोर, मेघना, ऐसी वैसी औरत और कुछ और किताबे…. फिर उन्होंने एक चिर परिचित अंदाज़ में बात करना शुरू किया कि मैडम बहुत अच्छा लगता है जब कोई यहां हिंदी की किताब लेने आता है । हमे भी कुछ काम मिलता है करने को, ऐसे खाली बैठ कर रोज किताबो की धूल साफ करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। उनकी ये बात सुनकर सिर हिला कर मै वहां से दो किताबें खरीद कर बाहर निकल आई।
और फिर से वहीं बाहर मेन शीशे में सजी किताबो को निहारने लगी जहां बराक ओबामा, इकिगाई, प्रियंका चोपड़ा जोनास, चेतन भगत आदि की किताबों की अंग्रेजी प्रतियां सजी हुई थी ।
तब से अब तक मैं एक सोच में हूं, कि एक ओर जहां हम हिंदी बोलने में इतने सहज है कि हम सब कुछ सोचते ही हिंदी में है, महसूस हिंदी में करते हैं तो फिर क्यों हमें अंग्रेजी या अन्य भाषाओं की ही किताबे चाहिए होती है अपनी बुक शेल्फ सजाने के लिए। हर व्यक्ति के पास अलग अलग कारण हो सकते हैं जैसे कि, आज के समाज में कुछ लोग बुद्धिजीवी होने का आंकलन ही इस बात से करते हैं, कि आप की रुचि किस भाषा में हैं? (खासकर अंग्रेजी भाषा के प्रति विशेष लगाव) जो एक लंबे समय से एक स्टेटस सिंबल की तरह काम करता आ रहा है। और इसका आंकलन कई बार फ्लाइट्स, मेट्रो, सोशल मीडिया पोस्ट में ही कर लिया जाता है।
दूसरा कारण, कई बार उस दूसरी भाषा में विशेष रुचि या फिर अपनी पकड़ मजबूत करना भी हो सकता है। तीसरा प्रमुख कारण किताबो का मूल्य है जिसके चलते बहुत सारे लोग जो सच में हिंदी प्रेमी है पर किताबो के खर्च का वहन नहीं कर सकते ।
कई अनेक दूसरे कारणों में से ये कुछ कारण प्रमुख लगते है, हिंदी भाषा में विद्यमान पाठको की कमी के लिए ।
किन्तु, दूसरी ओर जहां मैं अपने जैसे अनेक पाठको को देखूं तो मन में संतोष का भाव उमड़ता है कि कोरोनाकाल में फिर से शुरू हुई लिखने पढ़ने की आदत ने हर हफ्ते ना सही पर हर महीने, घर की बुक शेल्फ में हिंदी की बढ़ती किताबों ने अपनी धाक जमाई है जो कभी ऑनलाइन शॉपिंग के माध्यम से चली आई या फिर किसी मित्र ने उपहार स्वरूप दे दी । यकीन मानिए जिन्हें हिंदी व हिंदी साहित्य के प्रति थोड़ी सी भी रुचि जागृत हो रही है , वह प्रेमचंद, मंटो आदि की लघु कथाएं से शुरुवात कर सकते हैं और इसके साथ ही नई हिंदी की तरफ भी चल सकते हैं जहां आपको बिलकुल अपने जैसे किरदार और अपने जैसी कहानियां मिलेंगी । और जिनके पास सच में समय का बहुत अभाव है तो वो अपने कानों में इयरफोन लगा कर ऑडिबल, स्टोरीटेल जैसे ऐप लगा कर चलते फिरते भी फिर से हिंदी साहित्य से जुड़ सकते हैं । और एक सबसे जरूरी बात कि, जो भी नई पुरानी किताब हम पढ़े उसका जिक्र जरूर करे चाहे अपने सोशल मीडिया पेज में या फिर व्हाटास्प ग्रुप में या नुक्कड़ में खड़े अपने दोस्तो के साथ चाय की चुस्की के साथ ।
आशा है, आने वाले समय में हिंदी पढ़ने वाले व हिंदी पढ़ने का मन रखने वाले सभी पाठको के घरों में हिंदी की किताबें अपनी धाक जमाए और हिंदी फिर से खूब इठलाए ।।
– नेहा पंत नुपुर
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