जानें महिला दिवस की सार्थकता

हॉस्पिटल : बधाई हो, लड़की हुई है
घरवाले : पेट की गोलाई देख कर ही लग रहा था ।
समाज : चलो कोई ना, भगवान करे अगली बार बेटा हो जाए ।
शुभचिंतक : कोई नहीं, बच्चा तो हुआ आजकल तो बच्चे पैदा करना भी एक बहुत बड़ा टास्क हो गया है ।

मैं बस पैदा हुई ही थी…… और मैने सबको बुदबुदाते हुए देख इतनी सारी बातें सुन ली थीं ।
यहां तक कि, हाय हाय कहके कुछ आवाजे ढोलक के साथ पड़ी मेरे कानो में जिन्होंने मुझे अच्छी खासी नींद से जागा दिया । मैं दहाड़े मारकर रोने ही वाली थी कि, मां ने मुझे अपनी छाती से चिपटा लिया ।
बहुत भले लोग थे ये, उन्होंने मेरे आने की खबर सुनते ही मेरे घरवालों को अच्छा खासा डिस्काउंट दे डाला । कि, चलो पांच हजार ही दे दो नही तो हम इक्कीस हजार से कम नहीं लेती है । खैर ना ना करते करते ढाई हजार में पूरा मामला बैठ गया और मुझे बहुत सारा आशीर्वाद दिया गया और गाने गाए सो अलग ।
मेरे पैदा होने की खुशी इनसे ज्यादा किस को थी, ये समझने के लिए अभी मैं थोड़ी छोटी थी ।
खैर, धीरे धीरे मैं बड़ी होती रही । और चोट से ज्यादा डांठ खाती रही । कभी पैर फैला के बैठने के लिए डांट  या फिर कभी ज्यादा आचार खाने पर, तो कभी लडको के साथ क्रिकेट खेलने पर डांट…….. पर मैं भी ना बिलकुल ढींठ किस्म की औलाद थी जल्दी सरेंडर नही करती थी ।
फिर एक दिन पहली बार ऐसा लगा कि, मां सच कहती है कि लड़कियों को न थोड़े कायदे से रहना चाइए । जब एक दिन स्कूल बस वाले भैया ने पता नही क्यों, पर बड़ी जोर से घुटने से कुछ ऊपर हाथ फेर कर मारा था और मेरी सारा ढीठ पन उस दिन से पीला पड़ गया और उस दिन से मैं फिर कभी स्कूल बस में वापस नहीं गई ।
घर में ज्यादा ध्यान न देते हुए मुझे इसका एक दूसरा अल्टरनेट लेडी बर्ड साइकिल  के रूप में मिल गया मेरे जन्मदिन पर ….. साइकिल के गोल गोल पहिए खूब तेजी से घूमा के जा रही थी कि, एकदम पेट बहुत जोर से दुखने लगा और साइकिल की सीट लाल हो गई । जैसे तैसे स्कूल पहुंची तो सबसे पीछे बैठने वाली मूर्ख मंडली जोर जोर से हंसने लगी, मुझे लगा कि मुझे कुछ भयंकर बीमारी हो गई है, पर कभी किसी की बीमारी पर भी कोई हंसता है भला । एक ओर ये सब हो रहा था कि क्लास टीचर ने मुझे बुलाया और आनन फानन में घर भिजवा दिया ।
मां ने सांत्वना देते हुए कहा कि कोई बड़ी बात नहीं है ,ये सारी लड़कियों को होता है बस मंदिर मत जाना ।
इस बात का लॉजिक मैं कई सालों तक ढूंढती रही तो दादी ने कहा छोरी ये बातें तर्क वितर्क से परे हैं । और मुझे अशुद्ध करार देकर पूरे घर को गंगा जल से पवित्र करतीं रहीं । और कभी कभी मै उनको दुखी करने के लिए जबरन उनके पास आकर बैठ जाती । वो ओम पवित्रो कह कह कर चिड़े मुंह से मुझे भागा देती । इन सब में मुझे पापा सबसे कूल लगते थे उन्हें ऐसी किसी बात से कोई सरोकार नहीं था उनके लिए मैं बिलकुल हर दिन जैसी थी ।
कॉलेज शुरू होने से पहले मैने अपना मन बना लिया था कि, वूमेन एंड जेंडर स्टडीज ही पडूंगी की क्यों हमने औरतों के लिए मुश्किलें और बड़ा रखी है जबकि उन्हें कम नहीं कर सकते तो । पीएचडी करे मुझे लगभग तीन साल हो गए हैं, मतलब आप मुझे डॉक्टर कह के भी बुला सकते हैं पर मेरे आस पास के समाज वाले इस चिंता में घुले जा रहें हैं कि, मेरी उम्र तीस के पार हो चुकी है और अब रितिक रोशन टाइप लड़के मिलना नामुमकिन है तो संजीव कुमार भी मिले तो गनीमत है । वो अलग बात है कि, मुझे ये बताने में कोई खास रुचि नहीं है, कि अपने कॉलेज डेज में मैं टाइगर श्राफ जैसे बंदे को डेट कर चुकी हूं जिसने मुझे डॉमिनेटिंग वूमेन कह कर छोड़ने का फैसला लिया था और अब मेरी ही बेस्ट फ्रेंड उसके साथ इंगेजमेंट कर चुकी है । खैर छोड़िए आप शायद ये सोच रहें हो कि ये सब बताने का मतलब…..
दरसल पीएचडी की रिसर्च में मेरा कई बार ऐसे परिवारों से मिलना हुआ जहां छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी बूढ़ी झुर्रीदार शरीर कई प्रकार के शोषण के शिकार हुए, पर घरवाले और खासकर घर की दूसरी स्त्रियां ऐसे किसी वाकए को भूल जाने के लिए कहती हैं ।
मेरी नजर में हर वो दिन महिला दिवस है जब एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए आवाज उठाने की हिम्मत करती है और उसके सम्मान की लड़ाई में साथ रहे , इसमे औरों का नंबर तो बहुत बाद में आता है।
क्या फायदा कि इस एक दिन के बाद दूसरा दिन शोषण, असमानता ,बलात्कार, एसिड अटैक से घिरा हो ।
क्यों ना इतनी हिम्मत रखे कि कुछ भी ऐसा देखे जो स्वयं के लिए भी सही न लगे, आवाज उठाए और एक एक करके साथ साथ उठाए ।
और एवरी डे, हैप्पी वूमेंस डे मनाए ।
#हैश टैग वूमेन सपोर्टिंग वूमेन ।

( हममें से किसी एक की डायरी का पन्ना …….)

— नेहा पंत नूपुर

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