जातिगत जनगणना पर PM मोदी से मिले बिहार के नेता, इस मसले पर सब एकजुट !

बिहार के सभी राजनीतिक दल जातीय जनगणना की मांग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने जा रहे हैं. प्रतनिधिमंडल में बिहार की तकरीबन सभी धुर विरोधी पार्टियां एक साथ शामिल हैं. सभी समवेत स्वर में मांग करेंगे कि 2021 में होने वाली जनगणना में ओबीसी समेत सभी जातियों की गिनती की जाए.

 

1931 के बाद से अभी तक जितने भी सेंसस हुए उसमें अनुसूचित जाति और जनजाति को तो शामिल किया गया, लेकिन ओबीसी को लेकर केंद्र सरकारों की कोई स्पष्ट नीति नहीं रही. अब सवाल उठ रहा है कि बिहार में ओबीसी को लेकर जातीय ध्रुवीकरण इतना प्रबल क्यों हो रहा है? अन्य राज्यों के मुक़ाबले आखिर बिहार के राजनीतिक दल इतने मुखर क्यों हैं? आखिर अब तक बिहार एक समाज के तौर पर अपनी जातीय पहचान को छोड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं हो पाया है. आखिर हर बात घुमा-फिराकर उसी जाति पर क्यों आ टिकती है, जिसे हर कोई पीछे छोड़ने या त्यागने की बात करता है, पर सिर्फ भाषणों में, हक़ीक़त में नहीं. आखिर जाति के लिए इतना आग्रह क्यों है? इसके विभिन्न कारकों की हम यहां चर्चा करेंगे.

 

आप देखेंगे कि बिहार के एक स्वतंत्र राज्य के पीछे यहां के कायस्थों की बहुत बड़ी भूमिका रही, जिसमें सच्चिदानंद सिन्हा जैसे लोग प्रमुख तौर पर शामिल थे, लेकिन आज बात जब नौकरी में आरक्षण को लेकर आई तो सामाजिक न्याय की लड़ाई से अगड़ी जातियां बाहर हो गईं. 1900 के पूर्वार्ध में बिहार कायस्थ सभा, भूमिहार ब्राह्मण सभा, ऑल इंडिया कुर्मी महासभा और गोपजातीय सभा अस्तित्व में आए, जिसे हम दबाव समूह की संज्ञा दे सकते हैं. इन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सरकार से सुविधाएं प्राप्त करने के लिए समूहिक प्रयास किया.

 

1901 में जब भारत में जनगणना हुई तो उस समय सभी जातीय संगठनों ने अपने-अपने समाज की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए हर संभव बदलाव करवाने की कोशिश की. शायद ये पहली बार ऐसा था कि ब्रिटिश सरकार और जातीय समूहों के बीच सामाजिक न्याय और राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए चर्चा होनी शुरू हो गई. तब के दौर में भी ऐसे प्रयास शुरू कर दिये गए थे ताकि सभी जतियों को आनुपातिक तौर पर सामाजिक और राजनीतिक ढांचे में भागीदारी मिले. ये प्रक्रिया 1901 के बाद और अधिक तेज होती गई.

 

1990 के दशक में ओबीसी या अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण को केंद्र में रखकर मंडल कमिशन की सिफ़ारिशों को अमल में लाया गया, हालांकि इसका बिहार समेत भारत के बहुत से राज्यों में सवर्णों ने प्रखर विरोध किया. 1990 के दशक में बिहार में राजनीति के केंद्र में ओबीसी ही रहे, जो अलग-अलग जातीय समीकरणों के साथ सत्ता पर काबिज रहे. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार (दोनों ही ओबीसी समाज से आते हैं) पिछले 30 वर्षों से बिहार पर राज कर रहे हैं. इसलिए बहुत हद तक ओबीसी समाज सामाजिक उत्थान के लिए यही दोनों जिम्मेदार रहे. जब पिछले 30 वर्षों से दोनों दल सत्ता में हैं तो जातीय जनगणना को लेकर राजनीति क्यों गरमा रही है?

 

बिहार में जाति को लेकर बहुत ही सख्त आग्रह है, न सिर्फ राजनीति मैदान में बल्कि सामाजिक दायरे में भी. आज़ादी के बाद जब दक्षिण भारत में जाति और सामंतवाद के खिलाफ आंदोलन हो रहे थे, बिहार में ऐसे बदलाव के लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा. बिहार में आज़ादी के बाद के कई दशकों तक राजनीति की धुरी फॉरवर्ड और बैकवर्ड के इर्द-गिर्द घूमती रही. लेकिन एक बड़ा बदलाव देखने को मिला नब्बे के दशक में, जब यादव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटक के तौर पर उभर कर सामने आया.

सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में ओबीसी वर्ग का झुकाव काफी हद तक बीजेपी की तरफ रहा पर जब तमाम विपक्षी दल जातीय जनगणना की बात कर रहे हैं, बीजेपी जातीय गणना से क्यों कतरा रही है?
क्या वाकई ऐसा है बीजेपी जातीय गणना नहीं करवाना चाहती है? इसका शायद कोई स्पष्ट जवाब न मिले. पिछले दिनों गृह राज्य मंत्री नित्यानन्द राय ने कहा कि भारत सरकार जातीय गणना नहीं कराएगी. वहीं आप दूसरी तरफ देखेंगे तो बीजेपी के अंदर बहुत से नेता मिलेंगे जो जातीय जनगणना के पक्ष में बयान दे रहे हैं. मसलन बिहार की उप मुख्यमंत्री रेणु देवी ने जातीय जनगणना के पक्ष में अपना मत ज़ाहिर किया. ये भी ध्यान देने लायक है कि प्रधानमंत्री के साथ मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी कोटा से मंत्री जनक राम भी शामिल होंगे, जो अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं.

 

जातीय जनगणना पर पहली बार बिहार बीजेपी के बड़े नेता सुशील मोदी भी बोलते नज़र आए, उन्होंने कहा कि बीजेपी ने कभी भी जातीय जनगणना का विरोध नहीं किया है. वर्ष 2011 में बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में जातीय जनगणना का पक्ष लिया था.

 

ब्रिटिश राज में 1931 की अंतिम बार जनगणना के समय बिहार, झारखंड और उड़ीसा एक थे. उस समय के बिहार की लगभग 1 करोड़ की आबादी में मात्र 22 जातियों की ही जनगणना की गई थी. अब 90 साल बाद आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक परिस्तिथियों में बड़ा फर्क आ चुका है. जातीय जनगणना कराने में अनेक तकनीकी और व्यवहारिक कठिनाइयां हैं, फिर भी भाजपा सैद्धांतिक रूप से इसके समर्थन में है.

 

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